जनतंत्र का जन्म | रामधारी सिंह दिनकर
जनतंत्र का जन्म—-लेखक-परिचय
दिनकर की काव्यशैली के एक नेत्र में रणचण्डी का प्रकोप है और दूसरे में रसवंती का प्यार छलक रहा है। रुद्र की श्रृंगी और रास की मुरली बजानेवाली कभी ज्वालामुखियों में दहाड़ती है, तो कभी चाँदनी में अठखेलियाँ करती है। यौवन के श्रृंगार और घनसार, मधु और हलाहल, मुस्कान और उच्छवास एवं कंकन और करवाल की मीलित झंकार का अपूर्व आस्वादन, दिनकर की दिव्य शैली में सहज सुलभ है।”
प्राचार्य शिवबालक राय
‘दिनकर’ जी हिन्दी की राष्ट्रीय काव्य-चेतना के प्राणवंत गायक हैं। पौरुष के इस प्रभंजनी कवि का जन्म 1908 ई० में बिहार प्रांत के मुंगेर जिले के सिमरिया ग्राम में हुआ था। इन्होंने इतिहास विषय लेकर पटना विश्वविद्यालय से बी० ए० (ऑनर्स) परीक्षा पास की। फिर वे बरबीघा एच० ई० स्कूल में अध्यापक हो गए। उसके बाद सब-रजिस्ट्रार बने और तब मुजफ्फरपुर कॉलेज में हिन्दी के प्राध्यापक नियुक्त हुए। सन् 1952 में राज्यसभा के सदस्य निर्वाचित हुए। सन् 1964 ई० के आरंभ में इनकी नियुक्ति भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति पद पर हुई, किन्तु इन्होंने वहाँ से त्यागपत्र दे दिया। सन् 1965 ई० से केन्द्रीय सरकार को हिन्दी समिति के मंत्री पद पर कार्य कर रहे हैं।
कवि ‘दिनकर’ की अग्नि-वोणा छायावाद और प्रगतिवाद की संधि -वेला में फंकृत हुई। इनकी कविताओं में क्राति का स्वर सर्वाधिक मुखर है। कहते हैं, इनके क्रांतिकारी स्वर को दबाने के लिए ही तत्कालीन अँग्रेजी सरकार ने इन्हें सब-रजिस्ट्रार के पद पर नियुक्त कर दिया था- बच्चे को मिठाई दी थी। फिर भी इनका क्रांतिकारी स्वर दया नहीं। इन्होंने ‘सामधेनी’ और ‘हुंकार की रचना कर नवयुवकों में लोकप्रियता प्राप्त कर ली। इनकी कविताओं में राष्ट्र की पुकार एवं उससे संबंधित भावनाओं की अभिव्यंजना है। इन्हें भारत के गौरवपूर्ण अतीत से विशेष प्रेम है और उसी से प्रेरणा लेकर ये कविताएँ लिखते हैं हैं। इन्होंने एक जगह अपने को ‘युग का चारण’ कहा है। इनकी कविताओं पर रवीन्द्र, शेक्सपियर, शेली, कीट्स, इकबाल और काजी नजरुल इस्लाम का प्रभाव पड़ा है।
इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं
“रेणुका, हुंकार, रसवंती, द्वन्द्वगीत, कुरुक्षेत्र, सामधेनी, धूप-छाँह, बापू, रश्मिरथी, नील कुसुम, सीपी और शंख, उर्वशी, परशुराम को प्रतीक्षा”। ‘कुरुक्षेत्र’ पर इन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। ये वीर और रौद्र के कवि होने के साथ-ही-साथ प्रेम और सौंदर्य के मधुर गीतों के गायक भी हैं। गद्य के क्षेत्र में भी इन्होंने अपनी कीर्त्ति ध्वजा फहरा दी है इनको गद्य-कृतियों में ‘संस्कृति के चार अध्याय’ और ‘अर्द्ध-नारीश्वर’ विशेष ख्यात हैं।
कविता-परिचय-
कविता-परिचय- प्रस्तुत कविता ‘जनतंत्र का जन्म’ में लोकतंत्र के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। सदियों को देशी-विदेशी पराधीनताओं के बाद जब भारत स्वतंत्र हुआ तब यहाँ जनतंत्र की प्राण-प्रतिष्ठा हुई। जनतंत्र के ऐतिहासिक और राजनीतिक अभिप्रायों को कविता में उजागर करते हुए कवि एक नवीन भारत का शिलान्यास-सा करता है, जिसमें जनता ही सिंहासन पर आरूद्ध होती है, स्वयं शासन करती है।
कविता का सारांथ
प्रस्तुत कविता में ‘दिनकर जी’ ने कहा है कि सदियों की ठंढ़ी और बुझी हुई राख में सुगबुगाहट दिखाई पड़ रही है। जनता सोने का ताज पहनने के लिए आकुल-व्याकुल है, राह छोड़ो। अर्थात् शोषण करने वाले राज सत्ताधारियों को भारतीय जनता के लिए राज सिंहासन खाली करने को कहा गया है। कवि कहते हैं कि जनता सचमुच में मिट्टी अबोध मूरते ही हैं। जनता की पीड़ा व्यक्त नहीं की जा सकती। वह जाड़ा-पाला को सामान्य रूप से सहन कर लेती है। ठंड से शरीर कंपकपाता है मानो हजारों साँप हँस रहे हों। किसी व्यथा को जनता सहती है इसको कल्पना नहीं की जा सकती। पीड़ा सहकर भी मूक रहती है। अपनी पीड़ा व्यक्त नहीं करती। यहाँ जनता के अटूट धैर्य को उजागर किया गया है।
फिर कवि जनता में निहित व्यापक शक्ति को उजागर किया है। इसमें कहा गया है कि जनता जब जाग जाती है, अपने शक्ति बल का अभ्यास करके जब चल पड़ती है तब समय भी उसकी राह नहीं रोक सकती बल्कि जनता ही जिधर चाहेगी कालचक्र को मोड़ सकती है। युगों-युगों से अंधकारमय वातावरण में जीवन व्यतीत कर रही जनता अब जागृत हो चुकी है।
युगों-युगों का स्वप्न साकार हेतु कदम बढ़ चुके हैं जिसे अब रोका नहीं जा सकता। भारत में सबसे विराट जनतंत्र स्थापित होना तय हो गया है। कवि कहते हैं कि अब इस नवोदित व्यवस्था में राजा नहीं बल्कि प्रजा स्वयं राजगद्दी पर आसीन होगी। भारत की तत्कालीन तैंतीस करोड़ जनता राजा होगी। कवि संकेत करते हैं ि कि राज्याभिषेक हेतु एक सिंहासन और एक मुकुट नहीं होगा बल्कि तैंतीस करोड़ राजसिंहासन और उतने ही राजमुकुट की तैयारी करनी होगी।
भारत की प्रजा की महत्ता को उजागर करते हुए कवि कहते हैं कि आरती लेकर मन्दिरों और राजमहलों में जाने को आवश्यकता नहीं है बल्कि भारत में मजदूरी करते लोग, खेतों में काम कर रही प्रजा, मजदूर, किसान ही यहाँ के देवता हैं उन्हीं को आरती करने की जरूरत है। अब फावड़े और हल राजदंड होंगे, धूसरता स्वर्ण-श्रृंगार का रूप लेगा। अर्थात् अब मेहनती, परिश्रमी प्रजा को उसका वास्तविक हक मिलेगा। जनतंत्र की जयघोष होगी। समय की इस पुकार को समझते हुए जनता को आरूढ़ होने के लिए सिंहासन खाली करना होगा।
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