होटल के मालिक से जानिए
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ओयो होटल के मालिक से जानिए | कैसे बने 16 हजार करोड़ के मालिक

ओयो होटल के मालिक से जानिए- ओडिशा के बिस्मकटक में जन्मे रितेश के पिता दुकान चलाते थे। लेकिन रितेश को दुकान पर बैठना पसंद नहीं था। उनके मन मैं कुछ अलग करने की चाह थी। कुछ नया सीखने की चाह में वे समर इंटर्नशिप में सिम कार्ड बेचा करते थे, जिससे उनकी 2000 रुपए की पहली कमाई हुई थी।

होटल चेन ओयो देशभर में किफायती रूम्स के लिए जानी जाती है। इसके फाउंडर रितेश अग्रवाल (31) हैं। आज उनकी नेटवर्थ 16 हजार करोड़ रुपए है। फिलहाल रितेश चर्चा में हैं क्योंकि उनकी कंपनी ओयो अब बड़े स्तर पर खाने-पीने का बिजनेस शुरू करने जा रही है। जानते हैं उनके संघर्ष से सफलता की कहानी….

जब रितेश 12वीं में थे तब परिवार को आर्थिक समस्याओं के चलते घर बेचना पड़ा था। 12वीं के बाद रितेश ने दिल्ली में इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस एंड फाइनेंस में एडमिशन लिया। लेकिन तीन दिन बाद ही बिजनेस शुरू करने के लिए छुट्टी ले ली। वह फिर कभी कॉलेज नहीं लौटे। इस बात से उनके घर वाले अंजान थे। दिल्ली में सालभर तक रितेश एक बरसाती में रहे और छोटे-छोटे बिजनेस शुरू किए।

एक बार तो जहां वे रह रहे थे, वहां से आधी रात को उनका सामान निकाल दिया था और उनके पास सिर्फ 23 रुपए ही थे। फोन बिल न भरने से टेलीफोन सेवा भी बंद थी। कोरोना में उन्होंने बिजनेस में 4500 करोड़ रुपए का नुकसान तक उठाया। उनके लिए कस्टमर्स को मनाना तक मुश्किल हो गया था।

17 साल की उम्र में रितेश ने बजट रेंज में गुणवत्ता वाले होटलों की कमी को महसूस किया। 2011 में उन्होंने एयरबीएनबी की तर्ज पर बजट रेंटल सर्विस ओरावेल स्टेज लॉन्च की। 19 की उम्र में रितेश को प्रतिष्ठित थिएल फैलोशिप मिली। वे इसे पाने वाले पहले एशियाई थे। उन्हें 1 लाख डॉलर की ग्रांट मिली। इससे 2013 में उन्होंने ओयो शुरू किया।

आज ओयो दुनिया के 30 से ज्यादा देशों में बिजनेस कर रही रही है। 2018 में रितेश दुनिया के दूसरे सबसे युवा सेल्फमेड अरबपति बने थे। तब उनकी नेटवर्थ 1.1 बिलियन डॉलर थी। उन्हें फोर्ब्स की 30 अंडर 30 एशिया और टाइम मैग्जीन की 100 मोस्ट इन्फ्लुएंशियल पीपल इन द वर्ल्ड लिस्ट में जगह मिली। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार उनकी नेटवर्थ करीब 16,000 करोड़ रु. है।

क्या आप अक्सर स्वयं को एक ही प्रकार के विचारों के चक्र में फंसा हुआ पाते हैं हर निर्णय का हर कोण से विश्लेषण करते हुए और अधिक उलात जाते हैं? अगर हो, तो आप अकेले नहीं हैं। जब परीक्षा का समय अपने चरम पर हो और बोर्ड के परिणामों की धुकधुकी बनी हुई हो, तो ऐसे में छात्रों के लिए विचारों के भंवर में घिर जाना स्वाभाविक भी है। क्या मैं अपने मनपसंद कॉलेज में दाखिला लेने के लिए पर्याप्त अंक प्राप्त कर पाऊंगा? क्या मुझे अगले वर्ष फिर से प्रयास करना चाहिए? यदि मैं असफल हो गया तो क्या होगा?

ये साधारण प्रतीत होने वाले प्रश्न वास्तव में चिंता,आत्म-संदेह और मानसिक तनाव का कारण बन सकते हैं। इस पर विचार करें- प्रत्येक वर्ष जब बोर्ड परीक्षा के परिणाम घोषित होते हैं, हजारों विद्यार्थी असफल हो जाते हैं। लेकिन उनमें से कुछ आत्महत्या करने की हद तक चले जाते हैं। उन्हें ऐसा कायरतापूर्ण कृत्य करने के लिए क्या प्रेरित करता है? यह निरंतर नकारात्मक चिंतन का ही परिणाम होता है।

जहां कुछ विद्यार्थी असफलता को चेतावनी के रूप में लेकर अगले साल और अधिक मेहनत करने का संकेत मानते हैं, वहीं कुछ अन्य विद्यार्थी विपरीत दिशा में सोचना शुरू कर देते हैं। वे सोचते हैं, ‘मैं असफल हो गया। मेरे माता-पिता समाज में क्या मुंह दिखाएंगे? मैं अपने दोस्तों का सामना कैसे करूंगा? वे मुझसे आगे निकल जाएंगे और मैं पीछे रह जाऊंगा…। इस तरह के चिंतन को पुनरावृत्ति मन को इस कदर जकड़ लेती है कि आत्म-जागरूकता के अभाव में वह नियंत्रण से बाहर हो जाता है। अंततः विद्यार्थी यह निष्कर्ष निकालता है. ऐसे जीवन से मर जाना बेहतर है।

जब एक जैसे दिशाहीन विचार मन में लगातार घूमते हैं, तो ये हमें अतीत पर विलाप करने, भविष्य से डरने या आपके विचार ही आपके लिए या तो पिंजरा बन सकते हैं या फिर पंख। ऊंची उड़ान अगर भरनी है तो अपने पंखों को सकारात्मकता से भरें।

वर्तमान की चिंता करने में फंसा देते हैं। अत्यधिक चिंतन भी हमारे दैनिक जीवन में गलत धारणाओं का परिणाम हो सकता है। इनमें से कुछ हैं:

  • अति सामान्यीकरण: एक ही घटना के आधार पर व्यापक निष्कर्ष निकाल लेना। उदाहरण के लिए, एक अस्वीकृति के बाद यह सोचना कि मैं एक इंटरव्यू में असफल हो गया, अब मैं कभी सफल नहीं हो पाऊंगा।
  • सकारात्मक चीजों को नजरअंदाज करना, जो शुभ है, उसे अनदेखा करके केवल अभावों पर ध्यान केंद्रित करना। जैसे यह सोचना कि मैंने उच्चतम अंक प्राप्त नहीं किए, पास होना भर मायने नहीं रखता।
  • व्यक्तिगतकरण हर चीज के लिए स्वयं को दोष देना, जैसे ये कहना कि यह मेरी गलती है जो में विफल रहा। भावनात्मक तर्क भावनाओं को इतना महत्व देना कि वे अन्य सभी तर्कसंगत विचारों पर हावी हो जाएं।
  • भावनात्मक तर्क भावनाओं को इतना महत्व देना कि वे अन्य सभी तर्कसंगत विचारों पर हावी हो जाएं। ध्रुवीकृत सोच: जीवन को काले सफेद रंगों के समान केवल दो संभावनाओं में ही देखना, या तो सब कुछ सही, या सब कुछ गलत। जैसे कि, मुझे प्रमोशन के लिए नहीं चुना गया, इसका मतलब अब मेरा करियर बर्बाद हो गया। यह दृष्टिकोण हमें भुला देता है कि जीवन में कई रंग होते हैं। अपने जीवन को मंगलमय और सार्थक बनाने के लिए, चिंता के बजाय सकारात्मक
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